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राणा सांगा - प्रसिद्ध वीर राजपूत की चित्रकथा
आठवीं सदी में बप्पा रावल ने आक्रमणकारियों को राजस्थान से बाहर खदेड़कर छोटे-छोटे अनेक राज्यों को मिलाकर एक विशाल राज्य की स्थापना की थी। राणा सांगा उनके एक सुयोग्य उत्तराधिकारी थे। सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में, भारत का एक बड़ा भू-भाग विदेशी शासकों के अधीन था। राणा सांगा ने उन्हें भारत से बाहर खदेड़ने का साहसिक प्रयास किया था।
अनेक लड़ाइयों लड़नेवाले इस महान योद्धा के शरीर पर अस्सी घावों के निशान थे। यहाँ तक कि उन्हें अपनी एक आँख और एक हाथ भी खोना पड़ा था। मार्च 1529 में उन्होंने खनवा के मैदान में बाबर के विरुद्ध एक निर्णयात्मक लड़ाई लड़ी थी। उनकी जीत निश्चित थी, लेकिन दुर्भाग्य से उनका सेनापति शिलादित्य दुश्मन से जा मिला। पराजित राणा सांगा को मेवाड़ छोड़कर जंगलों में जाना पड़ा। तब उन्होंने प्रण किया था: "मेवाड़ की धरती पर मैं तब तक पैर नहीं रदूंगा जब तक अपने अपमान का यदला नहीं लेता।" लेकिन अफसोस वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सके और अपनी प्रतिज्ञा पूरी किये बिना ही इस संसार से चल बसे। उनकी आदर्श देशभक्ति से राणा प्रताप जैसे वीर पुरुष भी प्रेरणा लेते रहे। भारत के इस लौह-पुरुष की अद्भुत वीरता की कहानी 'कर्नल टाड का राजस्थान' नामक पुस्तक के आधार पर यहाँ प्रस्तुत है।
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